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अजनबी रातेँ २०-१४

अजनबी रातेँ    २०/१४
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मेरी शामे अजनबी होने लगी,तन्हा कर तुम चले गये।
 आ कर अजनबी से तुम कमल  दिल मे,रूठ कर कहाॅं चले गये।। 

मुहब्बत नहीं हमने इबादत की थी,तुम तो पहचान न
 पाए।
किसी इबादत को ठुकराया तुमने,यह तो समझ नहीं आए।।

शाप नहीं मैं रोज  भला चाहूॅं अब,तुम टूट बिखर जाओगे।
तेरी यादों मे रह कर मैं खुदको, हर रोज सम्हालूंगी।।

आनन्द कुमार मित्तल, अलीगढ़

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